गुरुवार, 29 दिसंबर 2011


जाती हुई हर



जाती हुई हर वर्ष को

कैसे कहें हम अलविदा

बोझिल हुए मन कुछ बता

कैसे कहें हम अलविदा



गुज़रा हुआ लम्हा कोई

फिर लौटकर आता नहीं

क्या क्या लिया क्या खो दिया

अहसास मर जाता कहीं



याद है उंगली पकड़ कर

उम्र का सोपान चढ़ना

बिन कहे सब कुछ बताकर

मौन में गुरु-ज्ञान गढ़ना



तुम बनी साक्षी मेरी संवेदना की

जब कभी अनुभूति ने मुझ को रुलाया

सांतवना के शब्द तुमने ही कहे थे

गोद में लेकर मुझे तुमने सुलाया



हैं सभी सुधियाँ सुरक्षित

याद आओगी सदा

कैसे कहें हम अलविदा



हों भले रिश्ते अनेकों

समय सा साथी न कोई

बाँच ले पीड़ा पढे बिन

अश्रु ने जब आँख धोई



आयेगा सो जायेगा भी

ये सफ़र का सिलसिला है

कौन ठहरा है यहाँ पर

अनवरत चलना मिला है



लिख लिया हमने बहुत कुछ

ज़िंदगी की डायरी में

है नहीं मुमकिन सुनाना

महफ़िलों में शायरी में



आज के अंतिम क्षणों में

तुम हमें आशीष देना

और जो अब तक दिया है

याद रखेंगे सदा



तुम क्षमा करना अगर

हमसे हुई कोई खता

बोझिल छुपे मन कुछ बता

कैसे कहें हम अलविदा











मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

न सोचो ढल गया दिन वक्त की तारीख में

उतरती शाम की रंगीन होती सुर्खियाँ देखो

न भय खाओ अंधेरों से बदलता दौर है ये

निकलती सूर्य के घर से चमकती रश्मियाँ देखो

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

तलाशा तो बहुत उस मंजिले मक़सूद को हमने

ये गुजरे कारवाँ की गर्द ही खुद दास्ताँ होगी

गवाही गर्दिशों की इंतजारे वक्त ही देगा

अंधेरों में पल़ी ये रोशनी जब भी जवाँ होगी

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011


आओ हम लौट चलें


दिन बीता साँझ ढली
धुंधलाये गाँव-गली
तारों संग रात चली
 लगने ही वाला अब
 सपनों का मेला है
 आओ हम लौट चलें
 जाने की बेला है।


उलझे-उलझे से दिन
सुलझी-सुलझी सी रातें हों
हम हो और तुम हों
मीठी-मीठी सी बातें हों
  तन भीगे मन भीगे
  बादल बरसातें हो
  महुआ के पेड तले
  महकी सी यादें हों
   मेरे इन सपनों को
   मन चाहा वर देना
   अनगाये गीतों को
   कोई तो स्वर देना
    अन्बोले शब्दों का
    भार बहुत झेला है
    आओ हम लौट चलें
    जाने की बेला है।


बालू की चादर पर
स्वप्निल घरोंदे थे
हमने बनाये थे
हमने ही रौंदे थे
 पुरवइया पवन बही
 बिखर गए पारा से
 आई जो एक लहर
 सिमट गये धारा से
  मंदिर में दीप जले
  पंछी घर लौट चले
  लगता है शाम हुई
  घर-देहरी दीप जले
   कितना भरमाता ये
   जीवन का खेला है
   आओ हम लौट चलें
   जाने की बेला है।


रिश्ते संबंधों की
किससे क्या बात करें
खुद के अहसासों से
जब तब संवाद करें
 अपनों की बात चले
 आँखें मत भर लाना
 जो भी सौगात मिले
 झोली भर ले आना
  धरती बस मिल जाये
  माँगे आकाश नहीं
  पाँव चले राह बने
  तिल भर तलाश नहीं
   कारवाँ में चलता
   हर आदमी अकेला है
   आओ हम लौट चलें
 
 जाने की बेला है।


दिन बीता साँझ ढली
धुंधलाये गाँव-गली
तारों संग रात चली
 लगने ही वाला अब
 सपनों का मेला है

 आओ हम लौट चलें
 जाने की बेला है।

किस किस को...


किस किस को बतलायें
किसको हम दिखलायें
कैसे इस जीवन की फटी हुई चादर को
 सिला और ओढ़ा है।


अश्रु भले सूखें पर आँख में नमीं रहे
दर्द भीगते रहें ज़िंदगी थमी रहे
इसलिए तमाम उम्र रात-रात जागकर
 एक एक शबनम को
 आँखों में जोड़ा है

 किस किस को बतलायें...


शून्य चेतना बनें प्राण छूटने लगे
अंत समय शांति हो मोह टूटने लगे
इसलिए तमाम उम्र नित्य ध्यान मग्न हो
 एक एक बंधन को
 धीरे से तोड़ा है
 किस किस को बतलायें...


कार्य कठिन हो भले कालजयी दृष्टि हो
लक्ष्य अर्थपूर्ण हो तुम समग्र सृष्टि हो
इसलिए तमाम उम्र हम कहीं रुके नहीं
 एक एक राह को
 मंज़िल तक मोड़ा है


किस किस को बतलायें
किसको हम दिखलायें
कैसे इस जीवन की फटी हुई चादर को
 सिला और ओढ़ा है।



सोमवार, 12 दिसंबर 2011







एक टूटा मन बचा है


दे दिया तुम को सभी कुछ
पास जो भी था हमारे
अब तुम्हें देने अकेला
एक टूटा मन बचा है
आँख में अटका हुआ सा
अकिंचन जल-कण बचा है।


नींद को आँचल उढ़ाने
आ गई सुधियाँ सिरहाने
जो न सम्भव देखपाना
देख सपनों के बहाने
याद करने के लिए शिशु-सा सरल बचपन बचा है
  और टूटा मन बचा है


व्यर्थ ही देखा किये हम
छल भरे सपने सजीले
आँसुओं में डूबकर
होते रहे सब दृश्य गीले
जो नहीं मोहताज मौसम का वही सावन बचा है

 और टूटा मन बचा है


अनगिनत संकल्प सूची में
कभी संचित किये थे
अनवरत होती  उपेक्षा से
वही वंचित हु ये थे
खोलता अनुबंध की गाँठें बँधा बंधन बचा है
  और टूटा मन बचा है


जो नहीं मिलता उसे हम
खोजते कब तक रहे
सत्य को स्वीकार समझौता
समय से हम करें
चितवनों में तैरता सा एक सूनापन बचा है
  और टूटा मन बचा है


दे दिया तुम को सभी कुछ
पास जो भी था हमारे
अब तुम्हें देने अकेला
एक टूटा मन बचा है
आँख में अटका हुआ सा
अकिंचन जल-कण बचा है।
 हमारे प्यार की अनुभूति
हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


भला क्यों खोजते ग़ैरों में हम संदर्भ अपनों के
हक़ीकत में ये क्या जीना सहारे सिर्फ़ सपनों के
अगर प्रारब्ध होता है कहीं तो प्राप्ति भी होगी
भले छलती रहे तृष्णा कभी तो तृप्ति भी होगी
 समय आकाश सी सब दूरियाँ नज़दीक ले आता
 हमें भी मिल गई होती सहज संवेदना क्षण की
 हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
 अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


भँवर में नाव थी सनसन हवायें घोर अंधियारा
उन्हें इस पार तक लाये दिखाते भोर का तारा
जिन्हें देकर सहारा इस किनारे तक हमीं लाये
लगे जब डूबने खुद हम न थे उनके कहीं साये
 हमें तूफान दरिया के न यों झकझोरने पाते
 दिखी होती सहारे की कोई सम्भावना तृण की
 हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
 अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


तुम्हें जब नज़र भर देखा जगी आसक्ति अकुलाई
नयन में बँद कर देखा उमड़ कर भक्ति भर आई
हमें जी जान से ज़्यादा जिये संबंध प्यारे हैं
मगर हम भाग्य के दर पर मिले अनुबंध हारे हैं
 कभी तुम टूटते दिल की कोई आवाज़ सुन पाते
 कभी पढ़ते नयन में मौन सी भाषा निमंत्रण की
 हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
 अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


जिसे हम सच समझते थे वही लगने लगा है भ्रम
रहे हम जोड़ते तिनके बनाने घोंसले का क्रम
हृदय की खिड़कियाँ खोलें अंधेरों को उजालों से नहलवायें
पड़े जड़वत विचारों को उठाकर चेतना के वस्त्र पहनायें
 अगर हम देख सकते खुद स्वयं को आइना बनकर
 कभी भी सूरतें होती नहीं मोहताज दर्पण की


हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की

शनिवार, 19 नवंबर 2011


तुम याद आए


 तुम याद आये
 आँखों में डूब गये
 शब्दों के साये
 तुम याद आये


नीले नभ में बिखरी-बिखरी
छोटी-बडी होती सी श्वेत-वर्ण आकृतियाँ
 श्याम वर्ण होने लगी
चातक की दर्द भरी प्यासी पुकार सुनी
बादल की आँखों में आँसू भर आये
रिमझिम रिमझिम मेघा बरसाये
मस्त हुए मोरों ने पंख फैलाये
 तुम याद आये


साँझ ढली सूरज की किरणें कुम्हलाई
छोटी से बड़ी हुई अपनी ही परछाईं
चरवाहे लौट गये थकी सांस घर आई
 संध्या ने सौंप दिया राजपाठ रजनी को
 स्वप्न सजे नींद भरी आँखें अलसाई
 चंदा ने तारों से रजनी की माँग भरी
 पानी के दर्पण में देखे, शरमाये
  तुम याद आये


दिन निकला रात गई
बीती सो बात गई
आने का वादा कर लौट गई चाँद परी
पंछी ने नभ में फिर ऊँची उड़ान भरी
उजियारे द्वार-द्वार दस्तक दे आये
भोर भई भक्तों ने पत्थर की
प्रतिमा में प्राण से जगाये
पर्वत के पीछे से सूरज ने ऊषा को
सोने सी किरणों के कंगना पहनाये
  तुम याद आये।






ओ सीमा के सजग सिपाही
कठिन राह के कर्मठ राही
तुम घर आँगन के चंदा हो
घर-घर का तुमसे नाता है
भारत तुमसे यश पाता है
 तुमने अनबन करी नींद से
 तब स्वतंत्र यह सुबह जगाई
 अपनी साँसें बंधक रखकर
 हमको आज़ादी दिलवाई
  बदले है भूगोल तुम्हीं ने
  तुमने ही इतिहास दिये है
  बाँटी खुशियाँ महल-झोपडी
  खुद तुमने बनवास लिये हैं
   तुम स्वतंत्रता के सृष्टा हो
   शौर्य तुम्हारा शिल्पकार है
   कीर्ति तुम्हारी अधर-अधर पर
   शब्दों में गौरव-गाथा है
   भारत तुमसे यश पाता है


रिश्ता तुमसे सभी उमर का
अंतहीन इस जनम-मरण का
कर्ज़ चुका पायेंगे कैसे
बढ़ते हर गतिमान चरण का
 यादों को घर भेज दिया, मन
 कहीं लक्ष्य से भटक न जाये
 हाथों में बंदूक उठाकर
 सीमा पर दृढ़ कदम बढ़ाये
  कीर्ति पताका पर तेरी हम
  जड़ देंगे सब चाँद सितारे
  तुम सूरज उग रही भोर के
  हर आँगन तुमको भाता है
  भारत तुमसे यश पाता है


कसम तुम्हें इस जन-गण-मन की
तेरी बांकी शान न टूटे
जब तक तुम प्रहरी बन जागो
कोई हिंदुस्तान न लूटे
 हरे-भरे दिखते जो सबको
 खेत और खलिहान तुम्हीं से
 जन-जन की जो भूख मिटाये
 फसलें और किसान तुम्हीं से

 पर्वत से गहरी घाटी तक
  मरुथल से गीली माटी तक
  कृषक चैन की बजा बाँसुरी
  बैठ मचानों पर गाता है
  भारत तुमसे यश पाता है


कितने खोए पुत्र पिता भी
कितने पति हो गए निछावर
बहनों ने भाई को भेजा
राखी तिलक किए आँख भर
 मेंहदी रचे हुए हाथों की
 कितनी बार चूडियाँ टूटी
 गाज गिरी कितने सपनो पर
 छुटे महावर बिंदिया छूटी
   तुम से जीवन के सुख-दुख की
   कितनी यादें जुड़ी हुई हैं
   शब्द मौन हैं आँखे भीगी
   स्वर अवरुद्ध हुआ जाता है
   भारत तुमसे यश पाता है


ओ सीमा के सगज सिपाही...











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शुक्रवार, 18 नवंबर 2011


आज फिर संदली


 आज फिर संदली संदली हवा चली
 गंध को बिखेरती खुल गई कली कली


फूल धूल में गिरा
झर गया पाँखुरी पाँखुरी
देखता रहा चमन
आँख से भरी-भरी
 आये जब तलक खिज़ाँ तुम जिओ बहार को
 प्रेम के पराग को बाँट कर कली अली
 आज फिर संदली संदली हवा चली


दो न दस्तक याद को
गाकर सुलाया है अभी
मत कुरेदो सिलसिले, कैसे
व्यथा का बीज बोया है कभी
 आँख से पानी गिरा तो आग ये बुझ जायेगी
 लाश गुज़रे वक्त की रह जायेगी फिर अधजली
 आज फिर संदली संदली हवा चली


तुम कहीं भी हो तुम्हारा
वास्ता पलता रहेगा
पाँव थक कर चल न पायें
रास्ता चलता रहेगा
 शून्य भी खाली नहीं है धहकता दिनकर वहीं है
 बह रही आकाश गंगा चाँद तारों की गली
 आज फिर संदली संदली हवा चली


किसने छू लिया मुझे
बाँध कर भुजाओं में
कौन है समा गया
डूबती निगाहों में
 पलकों पर थमा हुआ बाँध टूट कर बहा
 फिर कपोल पर लड़ी अश्रु की बनी, ढली
 आज फिर संदली संदली हवा चली
 गंध को बिखेरती खिल गई कली-कली








प्यार की सुगंध


प्यार की सुगंध से आदमी को देह मिली
बौराये अम्बुआ के मधुवन सा महक गया
खुल गया फूल और खिल गई कली-कली


 प्यार के अनेक रूप
 सत्य शिव सुंदर है
 सागर की गहराई
 सपनों का अम्बर है
 मंदिर में पूजा है
 प्यार ही पैगम्बर है


प्यार एक सतरंगी बुना हुआ बाना सा
जो भी रंग चाहोगे वही दीख जायेगा
किन्तु सबके देखने का अपना अंदाज़ है
इसीलिए बना हुआ प्यार एक राज़ है


 माणिक नहीं मोती नहीं
 ये तो केवल काँच का छोटा सा टुकड़ा है
 काँच के टुकड़े का जादू बस इतना है
 जैसे तुम होते हो वैसे ही दिखना है


  इसीलिए सच है प्यार एक दर्पण है
  अपना ही अपने को होता समर्पण है


प्यार एक दर्पण है














बुधवार, 16 नवंबर 2011





 आज हवाओं में पानी है


आज हवाओं में पानी है
लगता है बदली रोई है
कहीं किसी का दिल टूटा है
या कोई वसुधा खोई है
  आज हवाओं में पानी है


शोकाकुल लगता है सूरज
देता नहीं कहीं दिखलाई
चलता था जो साथ सभी के
साँझ ढले तक बन परछाईं
 आसमान रंग दिया कि जैसे
 खून हुआ हो अरमानों का
 या संध्या दुलहन ने अपने
 हाथ रची मेहंदी धोई है
   लगता है बदली रोई है
   आज हवाओं में पानी है


लगता है उपवन में कुछ तो
अनबन सी है कली अली में
उड़ी न खुशबू हुआ न गुंजन
खामोशी है गली-गली में
 है कोई साजिश मौसम की

 फूलों के चेहरे उतरे हैं
 रही रात भर रोती शबनम
 चुप हो अभी-अभी सोई है
  लगता है बदली रोई है
  आज हवाओं में पानी है


सपने थे जो गोद खिलाये
जाने कब हो गए सयाने
छोड़ गए आँखों का आँचल
रूठ गए जाने अनजाने
 बादल बन कर इतना बरसे
 सागर-सरिता सब भर डाले
 जाने किसके मोह-पाश में
 बुन डाले मकड़ी से जाले
  अब कैसे बाहर आ पायें
  राह नहीं दिखती कोई है
  लगता है बदली रोई है
  आज हवाओं में पानी है
















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शनिवार, 12 नवंबर 2011


मन में कुछ हूक हुई...


मन में कुछ हूक हुई वाणी फिर मूक हुई
आँखों में पीड़ा के तरल छंद तिरने लगे
क्षण भर में आँसू बन बूँद-बूँद गिरने लगे


पंछी के कलरव ने पेड़ों पर गीत रचे
डाल-डाल पात-पात नव-निर्मित नीड़ रचे
फूलों को देह मिली सुरभित सुगंधों की
पाँखुरियाँ बाँध रहीं चूनर, सब रंगों की


लतिकाएं लिपट गई पेड़ों की शाखों से
देख रही दृश्य प्रकृति अर्ध-खुली आँखों से
जिस बगिया कण-कण में छाया बसंत हो
कलियों की बाहों में भँवरे सा कंत हो


आसमान व्याकुल है धरती पर आने को
महकती दिशाओं से अमृत-कण झरने लगे
आँखों में पीड़ा के तरल छंद तिरने लगे
क्षण भर में आँसू बन बूँद-बूँद गिरने लगे


सकुचे सकुचाये सब दिग-दिगंत हो गए
क्या हुआ कि कलियों के कंत संत हो गए
बांझ हो गई बहार, खार-ख़ार है चमन
फूल के शबाब पर गीत बंद हो गए


वासंती बगिया से पूछ रही पुरवाई
किसने विष घोला है कौन हुआ हरजाई
इस ऋतु के आँगन में सरसों से ज़र्द हुए
होनहार बिरवों के पात-पात गिरने लगे


व्योम-धरा मौन हुई, रेत भरी अंगुरी सी
एक एक कण जैसे प्रश्नचिह्न मिटने लगे
आँखों में पीड़ा के तरल छंद तिरने लगे
क्षणभर में आँसू बन बूँद-बूँद गिरने लगे


मन की अवसाद भरी श्यामल सी घाटी में
बिजली सी कौंध गई जीवन की रेखायें
मुस्कानें कैद हुई खुशियों की आयु घटी
झूठी कहलाई सब हाथों की रेखायें


कोई यह वर दे दे जो भी ना कह पायें
विष जैसा पीकर हम नीलकंठ बन जायें
ऐसी कुछ शक्ति जगे मन में वह भक्ति रमे
आगत की आहट से बंद द्वार खुल जायें


जाने किन यादों ने आँखें छलकाई हैं
वर्षों से सूख गये भरे घाव रिसने लगे
आँखों में पीड़ा के तरल छँद तिरने लगे
क्षण भर में आँसू बन बूँद-बूँद गिरने लगे


मन में कुछ हूक हुई
वाणी

डूब गया पोर-पोर मन हुआ सराबोर
बीती सी याद बन मेह बरसने लगी


खुला खुला आँगन था चाँद-सितारों से भरा
किरन डोर थाम रात धीरे से उतरती रही
सपनों के फूल गूँथे सिरहाने छोड़ गई
आँख खुली देखा तो धूप निखरती रही
 बाहर की बगिया में फूल थे गुलाब के
 चूम लिया करते थे बचपन उछाल के
 भीगी सी माटी में दबे पाँव चलना
 चुपके से राम जी की गुड़िया पकड़ना
  तितली के साथ साथ दूर दौड़ जाना
  बारिश की बूँदों में भीगना नहाना
  किसने बिखेर दिये रंग आसमान में
  इंद्रधनुष देखते उम्र खिसकने लगी
  बीती सी याद बन मेह बरसने लगी


गुड़ियों के ब्याह किये और किये गौने
अखियों में आँज लिए सपने सलौने
ममता की आँखों में हो गई सयानी
मोह जगा आँखों में भर आया पानी
 गीत गवे ढोल बजे और बजी शहनाई
 मंगल महूर्त बीच हो गई पराई
 घूंघट में लाज लिए अंग सजे गहने

 कंगन औ बिंदिया और बाजूबंद पहने
  बाबुल को डाल दिये बाहों के घेरे
  भइया भिजइयो सवेरे-सवेरे
  आँसू से भीग गये चौखट चौबारे
  छूटा जो अंगना तो आँख फड़कने लगी
  बीती सी याद बन मेह बरसने लगी


जल्दी में भूल गई भौजी से कहना
भोरई भतीजे को देना ठिठौना
आवेंगी मिलने को संग की सहेली
कहना मैं पूछूँगी आकर पहेली
 सुअना से कहना मैं जल्दी चली आऊँगी
 हरी-हरी मिर्चे और जामफल लाऊँगी
 मोती ने दो दिन से रोटी नहीं खाई
 भइया ने दी होगी उसको दवाई
  आज मेरी मइया को नींद नहीं आयेगी
  रात भर देवी और देवता पुजायेगी
  एक बार मइया को फिर से निहार आऊं
  गोद सिमट जाने की चाह तरसने लगी
  बीती सी याद बन मेह बरसने लगी
  डूब गया पोर पोर मन हुआ सराबोर


शुक्रवार, 11 नवंबर 2011


प्यासे अधरों की..


मैं सीपी से गिरकर तो मोती नहीं बना
प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने


सागर में है निस्वार्थ समर्पण बूँदों का
ऐसे अर्पण की दूर-दृष्टि कितनी होगी
अपना वजूद खोए  जो औरों की खातिर
उस अंतरमन की आत्मतुष्टि कितनी होगी
 मैंने भी किया प्रयास सभी तन-मन दे दूँ
 बो कर खुशियों के बीज दर्द की फसल उगाई है मैंने
 प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने


मत काटो-छाँटो हरी-भरी शाखाओं को
ये पेड़ खड़े सन्यासी से दे रहे दुआ
आये आँधी पानी इनका संयम टूटे
पर रहे अड़िग कोई भी विचलित नहीं हुआ
 तन तपा धूप में तूफानों के तेवर देखे
 झुलसे प्राणों को छाया देकर तृप्ति जगाई है मैंने
 प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने


कुछ फूल बाँटते रहते हैं खुशबू सबको
अपने अंदर काँटों की चुभन छुपाकर भी
कुछ जले मोम से तम से समझौता करने
अपने जीवन के पल-पल को पिछला कर भी
 उनका आँसू मेरी आँखों से बह न सका
 छलकी आँखों मुस्कान जगाई है मैंने
 प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने


देते देते भी शायद कुछ कर्ज़ रह गए रिश्तों में
धीरे-धीरे सपनों के सुंदर महल ढह गए किस्तों में
देखा मैंने हाथों में भी कुछ ऐसी ही रेखाएँ थी
हो समाधान जिनका मुश्किल कुछ ऐसी ही शंकाएं थीं
 मुझको मन चाही मंज़िल चाहे मिली न हो
 भूले भटकों को राह दिखाई है मैंने
 प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने
 मैं सीपी में गिरकर तो मोती नहीं बना



दर्द का ये सिलसिला


..दर्द का ये सिलसिला


स्वप्न टूटते रहे
फिर भी देखते रहे
और उनका देखना तो कम नहीं हुआ अभी
दर्द का ये सिलसिला खत्म नहीं हुआ कभी


आँख का कुसूर क्या न नींद से कोई गिला
ये तो वो मकाम है जो जागकर नहीं मिला
चाहतों की बस्तियों में सब किसी को ठौर है
तुम नहीं मिले तो कहीं और कोई और है
 ये कारवां जो चल दिया तो फिर नहीं रुका कभी
 दर्द का ये सिलसिला खत्म नहीं हुआ कभी


क्या बतायें आप को किसने है दगा दिया
लूटकर गए वही जिनको आसरा दिया
भूल जायें उनको हम यह न अपने हाथ है
रस्म को निभायें हम और अलग बात है
 कौन है अपना, जताये हमको अपनापन कभी
 दर्द का ये सिलसिला खत्म नहीं हुआ कभी


ज़िंदगी की हाट में बिक रहा इंसान है
आँख में पानी नहीं बोली लगा ईमान है
और अब इंसानियत बैसाखियों पर चल रही
देख लो आखिर तुम्हारी क्या यही पहचान है
 शब्द में संबोधनों में अर्थ ढूँढे हम सभी
 दर्द का ये सिलसिला खत्म नहीं हुआ कभी


आइना थे आ गये हम पत्थरों के गाँव में
टूट कर चुभते रहे खुद ही अपने पाँव में
दर्द के अहसास को ज़ाहिर नहीं होने दिया
एक भी आँसू न छलके आँख से सौदा किया
 उसके बदले मुस्कराहट बेच दी उसको सभी
 दर्द का ये सिलसिला खत्म नहीं हुआ कभी
    स्वप्न टूटते रहे
    फिर भी देखते रहे


 

राह देखती रही...

राह देखती रही साँझ से दिया जला
कुछ नहीं पता चला कब सहर हो गई
  
तारकों में दिखी जो झलक वो तुम ही थे
नैन देखते रहे अपलक वो तुम ही थे
कुछ न कह सकी ज़ुबाँ
आँख थी कि अश्क से तरबतर हो गई
कुछ नहीं पता चला कब सहर हो गई
 


माहताब आए तो रात में शबाब हो
आँख भी खुली रहें और उनका ख्वाब हो
हम तुम्हारे हो गए
भेज कर उनको खबर बेखबर हो गई
कुछ नहीं पता चला कब सहर हो गई
  


हो अगर नज़रे इनायत कुछ कहें खामोशियाँ
बाँध टूटा सब्र का बढ़ने लगीं बेचैनियाँ
क्या ख़ता पता नहीं
दिल से माँगी हर दुआ बेअसर हो गई
कुछ नहीं पता चला कब सहर हो गई
  


उम्र को जी भर जिओ ग़म रहें तो रहें
फ़ासले खुशियों से कुछ कम रहें तो रहें
वक्त के मिज़ाज़ की क्यों करें शिकायतें
ज़िंदगी ज़िंदादिली से बसर हो गई
कुछ नहीं पता चला कब सहर हो गई
 राह देखती रही

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

अहसासों को दफ़न करें तो...

अहसासों को दफ़न करें तो कितना खालीपन लगता है
अंतरिक्ष में घूम रहा सा भारहीन जीवन लगता है


शून्य हुई सारी संज्ञायें भूत भविष्यत्‌ एक न व्यापे
वर्तमान सब खुला पड़ा है भय बाधा से हृदय न काँपे
आ बैठी छत की मुंडेर पर सहमी सहमी देख रही जो
मेरे अंतर में बहकी सी उस चिड़िया का मन लगता है
अहसासों को दफ़न करें तो कितना खालीपन लगता है



कायनात में काया बदली किरणों ने जन्मे अंधियारे
बादल बादल हुये साँवरे स्याह पड़ गये साँझ सकारे
कितनी बोझिल होगी आखिर काली कजरारी बदली की
पीड़ा से पानी पिघला है जो हमको सावन लगता है
अहसासों को दफ़न करें तो कितना खालीपन लगता है



पानी हूँ तो बहूँ कहीं भी सागर सरिता झील सरोवर
तेवर देखूँ मझधारों के या तट की बन जाऊँ धरोहर
कहने को सब ही अपने हैं मीठे पानी के झरने हैं
फिर भी इनके साथ बहूँ तो कुछ तो खारापन लगता है
अहसासों को दफ़न करें तो कितना खालीपन लगता है



जोगिन हुई जगी जिज्ञासा दूर दूर तक कोई न आशा
यात्रा में मीलों के पत्थर जैसी छूट रही अभिलाषा
निर्वासित हो गई कल्पना आँखों में वर्जित है सपना
साँसो का आना जाना ही जीवन यापन क्रम लगता है


अहसासों को दफ़न करें तो कितना खालीपन लगता है
अंतरिक्ष में घूम रहा सा भारहीन जीवन लगता है

नज़र से नज़रें मिले तो

नज़र से नज़रें मिले तो
बाँच लेना मौन मेरा


लाज के उस एक झीने आवरण से
बिन कहे सब कुछ बताना
प्यार का पहला चरण है
और यदि नज़रें झुकें तो समझ जाना
अनकहा ये समर्पण है
मौन का निःशब्द क्षण है


आँख की गहराइयाँ भी झील से ज़्यादा बड़ी है
तुम उतर पाए अगर तो
प्यार का मोती मिलेगा
जो अभी तन अनछुआ है
और बिन मांगी दुआ है
जो उतर आई किनारों पर
उस सुनहरी साँझ का जलता हुआ पहला दिया है


तुम अगर पहचान पाये
तुम अगर ये जान पाये
इस समुन्दर में यहाँ सीपी बहुत हैं
किन्तु सबमें तो वही मोती नहीं बनता
चितवनों से दे निमंत्रण जो उतर जाये हृदय में
मौन हो जाता मुखर है
मौन का निःशब्द स्वर है


नज़र से नज़रें मिलें तो
बाँच लेना मौन मेरा

रविवार, 6 नवंबर 2011

शीशये दिल पर हमारे

शीशये-दिल पर हमारे कौन-सा वह अक्स था
जो हमें बहका गया और दर्पण मौन था


अर्थ ने बाहें पसारी शब्द सीमित हो गये
सम्भावना के घर नये संदर्भ जीवित हो गये
पास आओ तुम कभी किसने कहा क्या सत्य था
कौन ये बतला गया स्वर निमंत्रण मौन था
    और दर्पण मौन था


उतप्त हो सागर सदा बादल बना गलता रहा
भाप बनना फिर पिघलना सिलसिला चलता रहा
एक दूजे को समर्पित हो गए क्या फ़र्क था
वक्त को बहला गया पर समर्पण मौन था
  और दर्पण मौन था


आँख जब देखे वही हो स्वप्न जो मैंने बुना हो
हो कभी संवाद ऐसे बिन कहे तुमने सुना हो
हम समझ पाये नहीं थे कौन सा वह दर्द था
जो हमें तड़पा गया और तर्पण मौन था
     और दर्पण मौन था


तुम सभी में, सब तुम्हीं में, है नहीं कोई अंदेशा
भेज देते हो हवा के हाथ प्रिय सौरभ-संदेशा
खुशबुयें अर्पित बहारों को हुई क्या कर्ज़ था
पाषाण भी पिघला गया और अर्पण मौन था
     और दर्पण मौन था


शीशये दिल पर हमारे कौन-सा वह अक्स था
जो हमें बहका गया और दर्पण मौन था

जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए


जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए



जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए

व्यक्ति को विचार के मान-दण्ड छल गए





खो गया आसमान प्यार की पतंग का

सिलसिला खतम हुआ उठ रही उमंग का

कुछ सुलग रहा यहाँ उठ रहा धुआँ-धुआँ





आग में अतीत की वर्तमान जल गए



जिस घडी आप हम वर्ग में बदल गए





दिन उदास हो गए शाम है डरी-डरी

बात रात ने कही आँख भोर की भरी

दर्द पिघलने लगे, अश्रु में बदल गए





आँख से गिरे कहीं रजकणों में मिल गए

जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए





तुम प्रकृति-पुरुष सदा प्यार के प्रतीक थे

और हम सृजन लिए स्रुष्टि के समीप थे

किन्तु जब ज़मीन पर चाँद चाहने लगे





हसरतों की गोद में हादसे मचल गए

जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए





स्वप्न गिर गए सभी पर कटे जटायु से

दो घड़ी की खुशी मिल न सकी आयु से

ज़िंदगी निबाहने की बात सोचते रहे



जाने कौन द्वार से फ़ासले निकल गए

जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए

व्यक्ति को विचार के मान-दंड छल गए



जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए



जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए

व्यक्ति को विचार के मान-दण्ड छल गए




तुम्हारे ही लिए


तुम्हारे ही लिए


गंध में डूबी नहायी
रातरानी रात भर महकी
 तुम्हारे ही लिए


फूल मुस्काये, ये मौसम ने किया कोई इशारा
गंध जा बैठी पवन की पालकी अंग-अंग मले मकरंद सारा
वीरान सी सूनी सुगंधित शाम को
संतूर सी बजती हवाएं
शायरों सी रात भर बहकी
रातरानी रात भर महकी
तुम्हारे ही लिए


पत्तों ने बजाई तालियाँ पेड़ों ने स्वागत गान गाये
दे रही पहरा दिशायें कोई यहाँ सोने न पाये
शांत नीड़ों में उनींदी
आँख मल-मल कर
चिरैय्या रात भर चहकी
रातरानी रात भर महकी
 तुम्हारे ही लिए


एकांत में एकात्म हो चढ़ते रहे सोपान कितने
मन हुआ तन्मय तपस्वी चंदनियाँ तन लगा तपने
जागती व्याकुल प्रतीक्षा
आँख में आशा भरे
खोले रही रात भर खिड़की
रातरानी रात भर महकी
 तुम्हारे ही लिए


अनकही बातें हमारी अनसुनी ही रह गई
कुछ हुआ होगा यकीनन आँख पुरनम हो गई
क्या कहें कैसी व्यथा है
दर्द से जन्मी नयन की कोर में
बूँद बनकर रात भर ढलकी
रातरानी रात भर महकी
 तुम्हारे ही लिए


है मुझे विश्वास करते याद होगे इसलिए
आती रही रात भर हिचकी
तुम्हारे ही लिए


गंध में डूबी नहायी
रातरानी रात भर महकी
 तुम्हारे ही लिए

मंगलवार, 27 सितंबर 2011


तुम नहीं मिले कहीं


तुम नहीं मिले कहीं हम तलाशते रहे
पत्थरों में देवता हम तराशते रहे


तुम बचाओगे हमें हर विपत्ति-व्याधि में
साथ ही रहोगे तुम आदि से अनादि में
रूप-रंग-गंध का कुछ पता नहीं अभी
हम तुम्हें क्ल्पना में सवांरते रहे
तुम नहीं मिले कहीं हम तलाशते रहे


पर्वतों की ओट से प्रभात बन के ढल रहे
तुम नदी की गोद में प्रवाह बन मचल रहे
घात में प्रतिघात में भवंर-चक्रवात में
जिन्दगी की नाव घाट पर उतारते रहे
तुम नहीं मिले कहीं हम तलाशते रहे


अंधकार में तुम्हीं प्रकाश-पुंज से खड़े
युद्धभूमि में तुम्हीं शूरवीर से लड़े
शांति में अशांति में भ्रमित-भूल भ्रांति में
हम तुम्हें प्रार्थना में पुकारते रहे
तुम नहीं मिले कहीं हम तलाशते रहे


भोर के प्रकाश में व्योम-व्योम छा गए
सो गई किरण को तुम चाँदनी उढ़ा गए
फूल-फूल में तुम्हीं समा गए सुगंध से
खार भी बने तो भूल को सुधारते रहे
तुम नहीं मिले कहीं हम तलाशते रहे


तुम नहीं मिले कहीं हम तलाशते रहे
पत्थरों में देवता हम तराशते रहे॥


 

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

रहते जैसे नदिया पानी


  मिल जुल कर रहना तुम ऐसे रहते जैसे  नदिया पानी 
             फडके जब भी आँख समझना  हुई तुम्हारी याद सयानी   
                             
                                 आखे रहे देखती सपने रात्रि दिवस का भेद नही हो
                            प्यार कवच हो संबन्धो का भूल चूक से खेद नही हो
                           कह् न सको  तो पाती  लिखकर दुहरा देना बात बयानी
                   
           ज्ञान प्रेरणा कुछ  पाने की प्रेम भावना खो जाने की    
        एक मांगता  पूर्ण समर्पण दूजा खुद को करता अर्पण 
      ल्क्ष्य एक ही खोना पाना प्रेमी हो या मुनिवर ज्ञानी
                  
                   महल झोंपड़ी रहने वाले हाथों अलग अलग रेखाएँ 
                 कोइ धन  के सागर डूबे  कोई  मन के घाट नहाये 
               संरचना है ऐक सभी की कोई याचक कोई  दानी
           
              लिखो कथानक कोई ऐसा  अन्तरतम संघर्ष जगाये
          जागे जिज्ञासा  आखिर तक प्रश्नों के सन्दर्भ उठाए
         संवादो के द्वार् खोलकर कहने आये पात्र कहानी 

 मिल जुल कर रहना तुम ऐसे रहते जैसे नदिया पानी 
फडके जब भी आँख समझना  करता कोई  याद पुरानी            

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

ज़िंदगी क्या है?

जिंदगी क्या है?
सांसो के चलने का अदभुत अहसास
सागर में तैरती अनबुझी प्यास
जिंदगी क्या हें ?
मांगी हुई मन्नत कहूँ तो दिल डूब जाता हें
सारी ख़ामोशी दांव पर लगाकर भी
देने वाले की दीनता ने इल्जाम बख्श दिए
और बिन मागें मोती से वे इल्जाम
झोली में भरे हम ,वक्त के वायदों से
गुमनाम मंजिल का अतापता पूछते रहे
क्योंलाँघ नही पाए फ़र्ज़ के दायरे, लक्ष्मण रेखा को
इन हरे भरे घावो को समय सहलाएगा
फिर कोइ संस्कार मरहम लगाएगा
और नया समझौता मन बहलायेगा
जिंदगी बहेगी फिर उसी रफ्तार
डूबते किनारे और टूटते कंगार
स्वयं से पूछेंगे
जिंदगी की हलचल में क्या खोया क्या पाया
क्या लिया और दिया
कैसे तू जिया ?
एक अनुत्तर प्रश्न बंद दरवाजे पर दस्तक लगाएगा
उत्तर की आशा में द्वार खुलवाएगा
ज़िंदगी क्या हें?