रविवार, 6 नवंबर 2011

तुम्हारे ही लिए


तुम्हारे ही लिए


गंध में डूबी नहायी
रातरानी रात भर महकी
 तुम्हारे ही लिए


फूल मुस्काये, ये मौसम ने किया कोई इशारा
गंध जा बैठी पवन की पालकी अंग-अंग मले मकरंद सारा
वीरान सी सूनी सुगंधित शाम को
संतूर सी बजती हवाएं
शायरों सी रात भर बहकी
रातरानी रात भर महकी
तुम्हारे ही लिए


पत्तों ने बजाई तालियाँ पेड़ों ने स्वागत गान गाये
दे रही पहरा दिशायें कोई यहाँ सोने न पाये
शांत नीड़ों में उनींदी
आँख मल-मल कर
चिरैय्या रात भर चहकी
रातरानी रात भर महकी
 तुम्हारे ही लिए


एकांत में एकात्म हो चढ़ते रहे सोपान कितने
मन हुआ तन्मय तपस्वी चंदनियाँ तन लगा तपने
जागती व्याकुल प्रतीक्षा
आँख में आशा भरे
खोले रही रात भर खिड़की
रातरानी रात भर महकी
 तुम्हारे ही लिए


अनकही बातें हमारी अनसुनी ही रह गई
कुछ हुआ होगा यकीनन आँख पुरनम हो गई
क्या कहें कैसी व्यथा है
दर्द से जन्मी नयन की कोर में
बूँद बनकर रात भर ढलकी
रातरानी रात भर महकी
 तुम्हारे ही लिए


है मुझे विश्वास करते याद होगे इसलिए
आती रही रात भर हिचकी
तुम्हारे ही लिए


गंध में डूबी नहायी
रातरानी रात भर महकी
 तुम्हारे ही लिए

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