शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

राह देखती रही...

राह देखती रही साँझ से दिया जला
कुछ नहीं पता चला कब सहर हो गई
  
तारकों में दिखी जो झलक वो तुम ही थे
नैन देखते रहे अपलक वो तुम ही थे
कुछ न कह सकी ज़ुबाँ
आँख थी कि अश्क से तरबतर हो गई
कुछ नहीं पता चला कब सहर हो गई
 


माहताब आए तो रात में शबाब हो
आँख भी खुली रहें और उनका ख्वाब हो
हम तुम्हारे हो गए
भेज कर उनको खबर बेखबर हो गई
कुछ नहीं पता चला कब सहर हो गई
  


हो अगर नज़रे इनायत कुछ कहें खामोशियाँ
बाँध टूटा सब्र का बढ़ने लगीं बेचैनियाँ
क्या ख़ता पता नहीं
दिल से माँगी हर दुआ बेअसर हो गई
कुछ नहीं पता चला कब सहर हो गई
  


उम्र को जी भर जिओ ग़म रहें तो रहें
फ़ासले खुशियों से कुछ कम रहें तो रहें
वक्त के मिज़ाज़ की क्यों करें शिकायतें
ज़िंदगी ज़िंदादिली से बसर हो गई
कुछ नहीं पता चला कब सहर हो गई
 राह देखती रही

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