गुरुवार, 10 नवंबर 2011

अहसासों को दफ़न करें तो...

अहसासों को दफ़न करें तो कितना खालीपन लगता है
अंतरिक्ष में घूम रहा सा भारहीन जीवन लगता है


शून्य हुई सारी संज्ञायें भूत भविष्यत्‌ एक न व्यापे
वर्तमान सब खुला पड़ा है भय बाधा से हृदय न काँपे
आ बैठी छत की मुंडेर पर सहमी सहमी देख रही जो
मेरे अंतर में बहकी सी उस चिड़िया का मन लगता है
अहसासों को दफ़न करें तो कितना खालीपन लगता है



कायनात में काया बदली किरणों ने जन्मे अंधियारे
बादल बादल हुये साँवरे स्याह पड़ गये साँझ सकारे
कितनी बोझिल होगी आखिर काली कजरारी बदली की
पीड़ा से पानी पिघला है जो हमको सावन लगता है
अहसासों को दफ़न करें तो कितना खालीपन लगता है



पानी हूँ तो बहूँ कहीं भी सागर सरिता झील सरोवर
तेवर देखूँ मझधारों के या तट की बन जाऊँ धरोहर
कहने को सब ही अपने हैं मीठे पानी के झरने हैं
फिर भी इनके साथ बहूँ तो कुछ तो खारापन लगता है
अहसासों को दफ़न करें तो कितना खालीपन लगता है



जोगिन हुई जगी जिज्ञासा दूर दूर तक कोई न आशा
यात्रा में मीलों के पत्थर जैसी छूट रही अभिलाषा
निर्वासित हो गई कल्पना आँखों में वर्जित है सपना
साँसो का आना जाना ही जीवन यापन क्रम लगता है


अहसासों को दफ़न करें तो कितना खालीपन लगता है
अंतरिक्ष में घूम रहा सा भारहीन जीवन लगता है

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