शुक्रवार, 18 नवंबर 2011


आज फिर संदली


 आज फिर संदली संदली हवा चली
 गंध को बिखेरती खुल गई कली कली


फूल धूल में गिरा
झर गया पाँखुरी पाँखुरी
देखता रहा चमन
आँख से भरी-भरी
 आये जब तलक खिज़ाँ तुम जिओ बहार को
 प्रेम के पराग को बाँट कर कली अली
 आज फिर संदली संदली हवा चली


दो न दस्तक याद को
गाकर सुलाया है अभी
मत कुरेदो सिलसिले, कैसे
व्यथा का बीज बोया है कभी
 आँख से पानी गिरा तो आग ये बुझ जायेगी
 लाश गुज़रे वक्त की रह जायेगी फिर अधजली
 आज फिर संदली संदली हवा चली


तुम कहीं भी हो तुम्हारा
वास्ता पलता रहेगा
पाँव थक कर चल न पायें
रास्ता चलता रहेगा
 शून्य भी खाली नहीं है धहकता दिनकर वहीं है
 बह रही आकाश गंगा चाँद तारों की गली
 आज फिर संदली संदली हवा चली


किसने छू लिया मुझे
बाँध कर भुजाओं में
कौन है समा गया
डूबती निगाहों में
 पलकों पर थमा हुआ बाँध टूट कर बहा
 फिर कपोल पर लड़ी अश्रु की बनी, ढली
 आज फिर संदली संदली हवा चली
 गंध को बिखेरती खिल गई कली-कली







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