सोमवार, 12 दिसंबर 2011

 हमारे प्यार की अनुभूति
हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


भला क्यों खोजते ग़ैरों में हम संदर्भ अपनों के
हक़ीकत में ये क्या जीना सहारे सिर्फ़ सपनों के
अगर प्रारब्ध होता है कहीं तो प्राप्ति भी होगी
भले छलती रहे तृष्णा कभी तो तृप्ति भी होगी
 समय आकाश सी सब दूरियाँ नज़दीक ले आता
 हमें भी मिल गई होती सहज संवेदना क्षण की
 हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
 अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


भँवर में नाव थी सनसन हवायें घोर अंधियारा
उन्हें इस पार तक लाये दिखाते भोर का तारा
जिन्हें देकर सहारा इस किनारे तक हमीं लाये
लगे जब डूबने खुद हम न थे उनके कहीं साये
 हमें तूफान दरिया के न यों झकझोरने पाते
 दिखी होती सहारे की कोई सम्भावना तृण की
 हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
 अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


तुम्हें जब नज़र भर देखा जगी आसक्ति अकुलाई
नयन में बँद कर देखा उमड़ कर भक्ति भर आई
हमें जी जान से ज़्यादा जिये संबंध प्यारे हैं
मगर हम भाग्य के दर पर मिले अनुबंध हारे हैं
 कभी तुम टूटते दिल की कोई आवाज़ सुन पाते
 कभी पढ़ते नयन में मौन सी भाषा निमंत्रण की
 हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
 अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की


जिसे हम सच समझते थे वही लगने लगा है भ्रम
रहे हम जोड़ते तिनके बनाने घोंसले का क्रम
हृदय की खिड़कियाँ खोलें अंधेरों को उजालों से नहलवायें
पड़े जड़वत विचारों को उठाकर चेतना के वस्त्र पहनायें
 अगर हम देख सकते खुद स्वयं को आइना बनकर
 कभी भी सूरतें होती नहीं मोहताज दर्पण की


हमारे प्यार की अनुभूति को दो पंख लग जाते
अगर हम समझ पाते अनकही भाषा समर्पण की

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