सोमवार, 30 जनवरी 2012


























अतीत करवट ले रहा है


याद की तीली जलाई है किसी ने
एक भूले गीत सा अतीत करवट ले रहा है


एक दिन था जब धरा पर
बूँद भर पानी नहीं था
बादलों की बेरुखी थी
मेघ भी दानी नहीं था
 ले गई सावन उड़ा कर
 सिरफिरी सी वे हवायें
 क्या पता किसको खबर
 फिर लौटकर आयें न आयें
 आँख के आँसू हमारे ले लिए सब
 प्यास को आवाज़ पनघट दे रहा है
   अतीत करवट ले रहा है



मुद्दतें गुज़री हुआ दुश्वार
जीना इस जहां में
मंज़िलों को खोजने
शामिल हुए हम कारवाँ में
 थक गये जब चलते चलते
 ज़िंदगी के इस सफ़र में
 हो गए घूमिल हमारे
 पदनिशाँ जो थे डगर में
 और जीने की दुआ मांगी नहीं थी
 क्यों मुझे यह आज मरघट दे रहा है
   अतीत करवट ले रहा है
 
टूट कर सपना अधूरा, उन
प्रसंगों से कभी जुड़ता नहीं है
समय है गतिमान आगे बढ़ गया
तो लौटकर मुड़ता नहीं है
 हो सुरक्षित लौ सदा
 चाहे कोई तूफ़ान आये
 प्यार के कंदील की ये
 रोशनी बुझने न पाये
 याद की तीली जलाई है किसी ने
 एक भूले गीत सा अतीत करवट ले रहा है















रविवार, 29 जनवरी 2012


तुम आने की बात कहो तो


मैं तो नयनों के द्वार खोल कर
निशिदिन प्रतिपल बाट निहारूँ
तुम आने की बात कहो तो


 पतझड़ यहाँ न आने पाये
 मौसम का पहरा लगावा दूँ
 उपवन में खिलते गुलाब का
 रंग तनिक गहरा करवा दूँ
  रजनीगंधा के फूलों से
  रातों की मैं गंध चुराकर
  चम्पा और चमेली के संग
  हरसिंगार बनकर बिछ जाऊँ
  तुम आने की बात कहो तो


 नदियों में आ जाय रवानी
 पत्थर पिघले पानी-पानी
 पर्वत को राई कर दूँ मैं
 सागर गागर में भर दूँ मैं
  तुम कह दो तो हाथ उठाकर
  नभ उतार धरती पर धर दूँ
  चाँद-सूर्य से करूँ आरती
  नक्षत्रों के दीप जलाऊँ
  तुम आने की बात कहो तो


 तुम चाहो बन जाऊँ अहिल्या
 पत्थर बनकर करूँ प्रतीक्षा
 जले न स्वाभिमान सीता का
 कब तक लोगे अग्निपरीक्षा
  रामनाम की ओढ़ चदरिया
  प्रेम रंग तन-मन रंग डालूँ
  मीरा बनकर ज़हर पियूँ मैं
  राधा बनकर रास रचाऊँ
  तुम आने

गुरुवार, 26 जनवरी 2012



३७- साझ हुई सिंदूरी..


सांझ हुई सिंदूरी गुलमुहर झरने लगे
लाल लाल फूल धरा सेज पर सजाये हैं
यादों में गुज़रे ज़माने लौट आये हैं
तुम्हारे इंतज़ार में , तुम्हारे इंतेज़ार में


पत्ते पलाश के सब पीले से पड़ गये
किसके वियोग में एक एक झड़ गये
अब भी कंकाल वृक्ष हौसला बनाये है
यादों में गुज़रे ज़माने लौट आये हैं
तुम्हारे इंतज़ार में, तुम्हारे इंतेज़ार में
सांझ हुई सिंदूरी गुलमुहर झरने लगे


सकरी पगडंडियां सब जवाँ हुई बनी गली
बाट जोहते हुए फूल बन गई कली
आज फिर माटी के घरोंदे बनाये हैं
यादों में गुज़रे ज़माने लौट आये हैं
तुम्हारे इंतज़ार में तुम्हारे इंतज़ार में
सांझ हुई सिंदूरी गुलमुहर झरने लगे


गंध उड़ी हौले से मधुवन जुहार आई
पवन चली पछुआ की आँगन बुहार आई
चौखट चौबारों पर चौक फिर पुराये हैं
यादों में गुज़रे ज़माने लौट आये हैं
तुम्हारे इंतज़ार में, तुम्हारे इंतेज़ार में
सांझ हुई सिंदूरी गुलमुहर झरने लगे


बूढे से बरगद ने बाँहें फैलाई है
नीम से निंबौरियाँ नीचे उतर आई हैं
पाखी-पखेरू ने पंख फैलाये हैं
यादों में गुज़रे ज़माने लौट आये हैं
तुम्हारे इंतज़ार में, तुम्हारे इंतेज़ार में
सांझ हुई सिंदूरी गुलमुहर झरने लगे....













सोमवार, 23 जनवरी 2012



सूर्य कि उस रोशनी


सूर्य की उस रोशनी की धूल हूँ मैं
आग का गोला स्वयं हूँ
कोहरा हूँ मैं सुबह का
साँझ की मैं साँस हूँ
ज्योत्सना हूँ चन्द्रमा की
क्षितिज का आमास हूँ


मैंने जगाई है चमक दो पत्थरों में
धातुओं में घातु हूँ सोना खरा मैं
मैं हवा उस बाग की
जो पी गई खुशबू गुलाबों की


मैं कड़ी उस जीव की
जो है बनाता दायरे
वह तराज़ू सृष्टि की
जो तौलता, गिरता उठाता


मैं वही हूँ जो नहीं है
और है भी--
मैं सभी की आत्मा हूँ
मैं स्वयं परमात्मा हूँ








 
रात जलती रही...


कोई उजली सुबह जन्म ले इसलिए
रात जलती रही तम पिघलता रहा


तम के अहसास का आज दम तोड़ने
हमने देकर चुनौती जलाए दिये
आँधियाँ आ गई रोशनी माँगने
हमने भ्रम ओढ़कर घुप अँधेरे जिये
 कुछ उजाले रहे, इसीलिये लौ सदा
 घर बदलती रही, दीप जलता रहा
 रात जलती रही तम पिघलता रहा


जिनको चाहा वही दूर जाते रहे
भूल जाते मगर याद आते रहे
सोचते ही रहे कौन हो तुम जिसे
कल्पना में बनाते-मिटाते रहे
 एक अनुमान का घर पता पूछते
 उम्र घटती रही, वक्त बढ़ता रहा
 रात जलती रही तम पिघलता रहा


कोरा कागज़ कफ़न का था मन आपने
रंग चूनर के भर हौसले बुन दिये
प्राण पंछी ने आकर बसेरा किया
उम्र की शाख पर घोंसले बुन दिये
 हम जिये तो मगर इस तरह से जिये
 साँस चलती रही दम निकलता रहा
 रात जलती rahii tam pighalta rha

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012


आज ठंडक है हवाओं मे
हवायें मेघ की गगरी
उठाकर चल पड़ी है
 अब न हम प्यासे रहेंगे
 इस धरा पर
 तृप्ति की सम्भावना के घर
 कोई खिड़की खुली है
 


जिंदगी की भाषा का व्याकरण प्यार है
मन संज्ञा तन क्रिया करता करतार है
आचरण विशेषण है कर्म ही विस्तार है
इन्हीं पाँच तत्वों का समीकरण प्यार है

हृदय को पत्थर बनाकर समय ने जो लिख दिया है
हम जले तो भी मिलेगी राख में लिपटी कहानी
रेत पर लिखा गया यह उंगलियों का भ्रम नहीं है
जो हवा के पास आते ही मिटा दे सब निशानी















सोमवार, 9 जनवरी 2012






३४-उड़ता हुआ धुआँ हूँ


उड़ता हुआ धुआँ हूँ
रहने को सब जहां है
सारा फलक है मेरा
पर आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ


 न ही बंदिशों के घर थे
 न ही रंजिशों के डर थे
 न ही ख्वाहिशों के पर थे
  अब तक चला हूँ आगे
  चलता ही जा रहा हूँ
  गुज़रे हुए समय का

 कोई निशाँ नहीं है
   आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ


वो आशिकी की रातें
शर्मो-हया की बातें
दिलकश सी मुलाकातें
 सब उम्र का चलन था
 बहका हुआ सा मन था
 ये जो वक्त का भरम था
 अब दर्मियाँ नहीं है
  आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ


शिकवे न शिकायतें हैं
खामोश आयतें हैं
कैसी रवायतें हैं
 क्यों कारवाँ में चलकर
 अदना सा रहगुज़र हूँ
 ये जानता हूँ लेकिन
 अर्ज़े बयाँ नहीं है
  आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ


जब भी सवालों से घिरा
माँगा नहीं है मशविरा
खुद ही उठाता हूँ गिरा
 सागर हूँ बादलों को
 पानी दिया हमेशा
 प्यासा हूँ फिर भी कितना
 ये इंतहा नहीं है
    आशियाँ नहीं है उड़ता हुआ धुआँ हूँ
















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